*डॉ. हरिवंशराय बच्चन जी की एक सुंदर कविता* _ख्वाहिश नहीं मुझे_ _मशहूर होने की,_ _आप मुझे पेहचानते हो_ _बस इतना ही काफी है._ _अच्छे ने अच्छा और_ _बुरे ने बुरा जाना मुझे,_ _क्यों की जिसकी जितनी जरूरत थी_ _उसने उतना ही पहचाना मुझे._ _जिन्दगी का फलसफा भी_ _कितना अजीब है,_ _शामें कटती नहीं और_ _साल गुजरते चले जा रहें है._ _एक अजीब सी_ _दौड है ये जिन्दगी,_ _जीत जाओ तो कई_ _अपने पीछे छूट जाते हैं और_ _हार जाओ तो_ _अपने ही पीछे छोड़ जाते हैं._ _बैठ जाता हूँ_ _मिट्टी पे अकसर,_ _क्योंकी मुझे अपनी_ _औकात अच्छी लगती है._ _मैंने समंदर से_ _सीखा है जीने का सलीका,_ _चुपचाप से बहना और_ _अपनी मौज मे रेहना._ ...
मंजिल से आगे बढ़ कर मंजिल तलाश कर !! मिल जाये तुझको दरया तो समन्दर तलाश कर !! हर शीशा टूट जाता है पथ्थर की चोट से !! पथ्थर ही टूट जाये वो शीशा तलाश कर !! सजदों से तेरे क्या हुआ सदियाँ गुजर गयीं !! दुनिया तेरी बदल दे वो सजदा तलाश कर !! ईमान तेरा टूट गया रहबर के हाथों से !! ईमान तेरा बचा ले वो रहबर तलाश कर !! हर शख्स जल रहा है अदावत की आग में !! इस आग को बुझा दे वो पानी तलाश कर !! करे सवार ऊंट पे अपने गुलाम को !! पैदल ही खुद चले जो वो आका तलाश कर !!
जिसे निभा न सकूँ, ऐसा वादा नही करता... मैं बातें अपनी औकात से, ज्यादा नहीं करता..! भले ही तमन्ना रखता हूं, आसमान छू लेने की लेकिन, औरों को गिराने का, इरादा नहीं करता...!
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