*डॉ. हरिवंशराय बच्चन जी की एक सुंदर कविता*   _ख्वाहिश नहीं मुझे_  _मशहूर होने की,_          _आप मुझे पेहचानते हो_          _बस इतना ही काफी है._  _अच्छे ने अच्छा और_  _बुरे ने बुरा जाना मुझे,_          _क्यों की जिसकी जितनी जरूरत थी_          _उसने उतना ही पहचाना मुझे._   _जिन्दगी का फलसफा भी_  _कितना अजीब है,_          _शामें कटती नहीं और_          _साल गुजरते चले जा रहें है._       _एक अजीब सी_  _दौड है ये जिन्दगी,_          _जीत जाओ तो कई_          _अपने पीछे छूट जाते हैं और_  _हार जाओ तो_  _अपने ही पीछे छोड़ जाते हैं._   _बैठ जाता हूँ_  _मिट्टी पे अकसर,_          _क्योंकी मुझे अपनी_          _औकात अच्छी लगती है._  _मैंने समंदर से_  _सीखा है जीने का सलीका,_          _चुपचाप से बहना और_          _अपनी मौज मे रेहना._      ...
 
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